क्या ये सच है कि नेपाल ने पानी छोड़ा है ?
या सोच समझ कर हमारा ध्यान किसी ने मोड़ा है...
सदरे आलम
मई 2009
ज्ैासा कि आप जानते हैं सैलाब के कारण पिछला दो साल बिहार के लोगों के लिए तबाही का साल रहा है। 2007 में समस्तीपुर में बाँध टूटने के कारण लाखो लोगों की सालों साल की मेहनत एक झटके में बर्बाद हो गई। 2008 में नेपाल सीमा के अन्दर कुसहा तटबंध टूटने से बिहार के 3 जिले नीस्त-व-नाबूद हो गये। इन दोनों सालों में बिहार के इन इलाकों में इस बात की खूब चर्चा थी कि नेपाल ने पानी छोड़ा और हम बर्बाद हो गये। क्या यह सही है कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण बिहार के तीन चार जिले अक्सर बर्बाद हो जाते हैं या इसके पीछे कारण कुछ और है आओ इसका पता लगाए ?
बिहार में नदियों का जाल बिछा है, बरसात के मौसम में इन सभी नदियों में अधिक पानी आ जाने के कारण सभी नदी-नाले आपस में मिल जाते हैं, और हर साल एक विकट परिस्थिति पैदा हो जाती है। उस परिस्थिति में हर बार यही कहा जाता है कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण नदी में बाढ़ आया है ?
बिहार के मैदानी इलाकों में बरसात के मौसम में बाढ़ आने का इतिहास काफी पुराना है लेकिन देश के आजाद होने के एक साल बाद यानी 1948 में बाढ़ आने के बाद से तटबंध बनने का काम शुरु हुआ जो अगले 15 सालों तक गंगा, कोसी और उसकी सहायक नदियों पर इसे बनाने का सिलसिला जारी रहा। बिहार के वह तमाम इलाके जहां बारिश का पानी आने का खतरा था धीरे-धीरे तटबंध बनाकर उन इलाके को सुरक्षित बनाया गया। इन तटबंधों की देखरेख के लिए करोड़ों रुपये का बजट हर साल आवंटित कराया जाता है। यह आवंटित बजट कैसे खर्च होता है इस पर हम आगे चर्चा करेंगे।
यूं तो नदियों में सैलाब के आने का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन तटबंध टूट कर सैलाब आने का सिलसिला 1987 से शुरू हुआ और फिर 2002, 2004, 2007 और 2008 में तटबंध टूटकर सैलाब आया। इन सभी वर्षों में हर बार यही कहा गया कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण सैलाब आया ? हमें यह कहने से पहले इसकी गहराई में जाना जरुरी है कि क्या नेपाल के पानी छोड़ने के कारण बाढ़ आता है या इस अफवाह के पीछे कारण कुछ और है ? आओ इसका पता लगाए।
भारत-नेपाल संधि:- भारत नेपाल कोसी संधि 1954 के मुताबिक नेपाल में कोसी पर बने तटबंध के रख रखाव की पूरी जिम्मेदारी भारत सरकार की है। एवं इसके देख रेख के लिए सीमा के नजदीक बीरपुर में इसका दफ्तर भी है। फिर 2008 में कुसहा तटबंध टूटने का जिम्मेदार नेपाल कैसे ? अखबारों और समाचारों से पता चलता है कि तटबंध के टूटने से पहले तटबंध में रिसाव था जिसकी पूरी जानकारी भारत सरकार को थी। कुसहा तटबंध के आस-पास के लोगों के मुताबिक तटबंध के टूटने से 2 दिन पहले से तटबंध से 5 फिट से ज्यादा चैड़े नाले का बहाव शुरु हो चुका था, जिसे तटबंध के जिम्मेदार अधिकारियों ने तुरन्त बन्द करने की पहल नहीं की और यह तटबंध 18 अगस्त 08 को टूट गया।
तटबंध के रख रखाव की जिम्मेदारी भारत सरकार की है, भारत-नेपाल सीमा पर देख रेख के लिये दफ्तर है, तटबंध के खराब हालत की सूचना पहले से सबको थी, तटबंध में रिसाव है यह जानकारी भी सरकार को पहले से थी, तटबंध के टूटने से 2 दिन पहले से तटबंध से नाले का निकल जाना। क्या यह सबकुछ भी भूल चूक से ही हो रहा था या फिर इसके पीछे भी कोई गहरी चाल है ? आओ इसका पता लगाए।
तटबंध का आवंटित बजट:- बिहार में आम तौर पर नदियों के तटबंध मरम्मत के लिये बजट नये सत्र यानी अप्रैल से बनना शुरू होता है। अगर अप्रैल में बजट बन गया तो मई-जून तक कागजी कार्यवाही से गुजरता है, फिर सभी अधिकारियों का बजट में प्रतिशत सुनिश्चित किया जाता है कि इस तटबंध में कितना इंजीनयर, कितना बड़े नेता, छोटे नेता, डी.एम एवं एस.डी.ओ का हिस्सा होगा ? इसके बाद ठेका निकलने की प्रक्रिया शुरु होती है, तब तक जुलाई का महीना आ जाता है और हर कमजोर तटबंध पर कटाव का डर शुरू हो जाता है। नदी में पानी भर जाने के कारण तटबंध पर काम करना मुश्किल होता है। क्या इस मुश्किल से इंजीनियरों को परेशानी होती है ? बिल्कुल नहीं ! इस परेशानी का इंतजार वह जान बूझकर करते हंै ताकि 5,000 बोरी मिट्टी लिख कर 500 बोरी मिट्टी डाल सके, 50 ट्रक बोल्डर लिखकर 10 ट्रक बोल्डर डाल सके और कहें कि कटाव में भस गया इससे तमाम अधिकारियों को करोड़ों बचाने का मौका मिलता है। इसी करोड़ों के बचाने के उद्देश्य से हर बार तटबंध मरम्मत पर काम देर से शुरु कराया जाता है। और अगर कोई तटबंध टूट गया तो फिर रिलीफ बांटने का दौर शुरू होता है।
रिलीफ का काम:- तटबंध के टूटने से एक तबाही आती है, ऐसी तबाही जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। हम जिसे बोतल में बन्द कर थैले में रख लेते हैं वही पानी हमे बर्बाद कर हमारे घर के उपर से निकल जाता है। फिर एक गड़गड़ाता हेलीकाप्टर हमारी तबाही का आंकलन करता हमारे भोले पन की कीमत तय करता है, हम इसे अपनी भाषा में बाढ़ रिलीफ फंड कहते हैं। लोगों के इस हालत को देख कर प्रधान मंत्री मगर मच्छ बन जाता है और रोता है। मुख्य मंत्री सेनापति बन कर फौज बुलाता है। महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अपने आगामी उद्घाटन समारोह में जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया जाता है। लेकिन इस बात की चिन्ता किसी को नहीं होती है कि जो रिलीफ फंड लोगों के लिए आवंटित किया जा रहा है वह लोगों तक कैसे पहुंचाई जाए। आखिर मंत्री एवं आला अधिकारी ऐसी हरकत भूल-चूक से करते हैं या फिर इसके पीछे भी कोई कारण है। आओ इसका पता लगाएं।
जब रिलीफ के लिए फंड आवंटित किया जाता है तब भी तटबंध मरम्मत बजट की तरह ही सबसे पहले ऊपर के अधिकारी अपना प्रतिशत तय करते हैं ताकि करोड़ों की डकैती बिना किसी बन्दूक पिस्तौल के हो सके। फिर रिलीफ का सामान कागज पर खरीदा जाता है और डूबते मरते लोगों तक रिलीफ पहुंचाने का प्रचार मंत्री महोदय मीडिया के सामने करते रहते हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल कुसहा तटबंध के टूटने के बाद अगस्त 2008 में देखने को मिला, तबाह हो चुकी 13 लाख जनता को बचाने के लिए एक हफ्ते के बाद 2 हेलीकाॅप्टर भेजा गया। शायद सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों को यह महसूस हुआ हो कि बिहार की जुझारु जनता एक हफ्ते तक बिना दाना-पानी के छतों, छप्पड़ों, पेड़ों और ऊँचे स्थानों पर आराम से रह सकती है। बहादुर मंत्रियों को यह भी महसूस हुआ होगा कि जिन लोगों के कानों में हेलीकाॅप्टर की आवाज चली जाएगी उन्हें यह एहसास तो हो जाएगा कि सरकार ने हमें बचाने के लिए हेलीकाॅप्टर भेजा है, यानी हमारे देश में सरकार नाम की चीच ऊपर उड़ती है। 2 हेलीकाॅप्टर लोगों को बचाने की कोशिश करता रहेगा, तब तक पानी वापस लौट कर नदी में गिरने लगेगा। सरकार पर कोई इल्जाम नहीं लगा सकता कि उसने हर मुमकिन कोशिश नहीं की। इस 13 लाख बुरी तरह प्रभावित लोगों को तुरन्त बचाने के लिए सरकार के पास क्या इन्तजाम थे ?
नदी पर पुल निर्माण:- बिहार में नदियों का जाल बिछा है, इन जालों को लांगती लम्बी - लम्बी सड़क, एवं रेल योजना का काम ठेकेदारों द्वारा कराया जाता है। इन ठेकेदारों का मकसद मुनाफा कमाने के इलावा और कुछ नहीं होता। नदी के ऊपर बनने वाले पुलों की लम्बाई छोटी बनाने के कारण नदी के बहाव में रूकावट आता है। नदी के उपर बने जिन पुलों की लम्बाई 300 मीटर होनी चाहिए उसकी लम्बाई 200 मीटर कर दी जाती है और आसानी से पर्यावरण संरक्षण विभाग से उसके निर्माण के लिए हरी झंडी भी मिल जाती है। यह हरी झंडी जेब की हरियाली के लिए दी जाती है या गांवों एवं खेतों की हरियाली को बनाये रखने के ऊपर अध्ययन एवं परख के बाद यह आप भी जानते हैंै। दूसरी तरफ नदी के बीचो बीच खड़ा 4-5 पिलर नदी के बहाव को रोकता है जिस कारण पुल के पीलरों के सहारे बालू मिटटी का टीला बन जाता है। इन टीलों की सफाई के लिए जो पैसा आता है वह नदी की सफाई पर खर्च नहीं किया जाता। पुल की लम्बाई कम होने एवं पिलर के सहारे टीला बन जाने के कारण बरसात के मौसम में यह पुल नदी को रोक देती है, इस रुकावट के कारण नदी पुल के एक तरफ अपने तट पर दोनों ओर फैलते ही खतरे के निषान को पार कर जाती है। देखते ही देखते आस-पास के इलाकों में खतरा बन जाता है। इस खतरे से लोगों के बीच में फिर अफवाह बनाया जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा है ? ताकि कोई यह प्रश्न न करे कि पुल को बनाने की अनुमति पर्यावरण विभाग के किस अधिकारी ने दी या पुल की लम्बाई कम क्यू है एंव नदी में रुकावट बने बालू मिट्टी को निकाला क्यू नहीं गया ?
तटबंध की जरुरत नहीं:- बहुत से लोगों का मानना है कि जब नदियों के किनारे तटबंध नहीं थे तब बरसात के मौसम में बारिश के अनुसार पानी जमा होता था जो धीरे-धीरे दोनों तरफ फैलता था। बरसात के बाद पानी कम होते ही वापस नदी के रास्ते समुद्र में चला जाता था। लेकिन तटबंध के टूटने से जिस रफ्तार से सैलाब का पानी आता है उस समय हालात को काबू में लाना एवं तबाही का अनुमान लगा पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन यह बहस का मुददा है कि तटबंध हो ही नहीं या तटबंध के रख रखाव को भी जरूरी समझा जाए एवं गैर जिम्मेदार अधिकारियों को काला पानी भेजा जाए।
कटाव स्थान से सामानों की चोरी:- सरकारी अधिकारियों से बात चीत से पता चलता है कि तटबंध मरम्मत के लिए जो बोल्डर, बंडाल, तार एंव ईट जैसे सामानों का उपयोग कटाव को रोकने के लिए किया जाता है, बरसात के बाद उसकी चोरी हो जाती है एवं हर साल काम षुरू से करना पड़ता है। जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है कि कटाव पर काम देर से शुरू होता है एवं सामान बहुत कम लगाया जाता है, सरकारी अधिकारियों को यह कह कर खुद को बचाने का मौका मिल जाता है कि कटाव का सामान चोरी हो गया। हां यह माना जा सकता है कि जो सामान लगाया गया था वह चोरी हो गया तो इन दोनों तथ्यों में फर्क करना होगा कि कितना लगाया गया एवं कितना चोरी हुआ ? हम तटबंध कटाव पर सामान की चोरी होने को ठीक साबित नहीं करते हुए इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि बाढ़ से तबाह, रिलीफ व मद्द से महरूम एवं बेरोजगारी भूखमरी से परेषान जनता जब कभी “फील गुड” तो कभी “इंडिया शायनिंग” कभी “प्रमाणु शक्ति” तो कभी “चख दे इडिया” और कभी “जय हो” के नारे सुनती है तो वह अपने फील गुड के हिस्से को अपनी तरह बदहाल तटबंध पर रखे कुछ सरकारी बोल्डर, बंडाल, तार एंव ईट को बेचकर हासिल हुए पैसों के रुप में देखती है जो गल्त है। अगर सरकार को इस तरह की चोरी से बचना है तो सभी के लिए रोजगार का इन्तजाम करे फिर इन लोगों में राजनैतिक चेतना पैदा करना भी सरकार की जिम्मेदारी है कि भूख एक सत्य है चोरी असत्य। बाबा नागार्जुन के शब्द में:
‘‘ जब तक भूखा इंसान रहेगा- धरती पर तूफान रहेगा ’’ ।
क्लाईमेट चेन्ज, ग्लोबल वार्मिंग:- (वातावरण के गरम होने) का मुद्दा लगातार तूल पकड़ रहा है। पृथ्वी पर गरमी बढ़ है, इस गरमी के बढ़ने का कारण ईंधनों की बढ़ती खपत है। गर्मी के बढ़ने से पहाड़ों का बर्फ अधिक पिघल कर नदियों व समुद्रों में जा रहा है। जिस कारण पिछले कुछ सालों से सैलाब का खतरा लगातार बना रहता है।
आज पूरी दुनियां में कारों और तरह-तरह के गाड़ियों की संख्या बढ़ रही है। लोग शहर को रोशनी से चकाचैंध करने के लिए तरह-तरह के बड़े-बड़े लाईट उपयोग करते हैं। कारखानों का धुँआ हवा को दूशित एवं गर्म करता है। अगर धरती को गर्म होने से बचाना है ताकि पहाड़ों का बर्फ अधिक न पिघले तो उसके लिए जरुरी है कि निजी वाहन को शान की चीज नहीं बल्कि धरती की परेशानी समझनी चाहिए एवं ईधन के खपत को कम से कम करने की कोशिश को प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि धरती पर जीवन कायम रहे।
मजदूरों को उसके मेहनत की कमाई न देना, जमीनदारों द्वारा खेत मजदूर का शोषण होना, ठेकेदारों द्वारा अधिक से अधिक लाभ हासिल करना, तटबंध के पैसों में अधिकारियों द्वारा करोड़ों का गबन होना, रिलीफ के पैसों में घोटाला। इन तमाम गलत मुनाफे से सुखभोगी समाज अपने ऐश-ओ-आराम के लिए निजी वाहन खरीदता है एवं निजी सुविधाओं के इंतजाम के लिए बिजली, तेल एंव अन्य ईंधन का भरपूर उपयोग करता है इस गलत आमदनी एवं गलत खर्च के चक्र को समझते हुए इसका विरोध होना चाहिए कि अगर इसी तरह हमारे समाज का अमीर वर्ग गाड़ियों एंव एयर कन्डिश्नरों आदि का इस्तेमाल करती रही तो उनकी इन हरकतों से नदी के आस-पास के खेत एंव इलाके हर साल बर्बाद होंगे। करे कोई और भरे कोई के इस खेल को खत्म करना होगा।
बालू से ढके खेतों का क्या होगा ?:- तटबंध टूटने से सैलाब आया, तमाम तबाहियां हुई, समय बीतने के साथ पानी वापस समुद्र में चला गया। किसानों की हजारों एकड़ जमीन बर्बाद हो गई। पूरा इलाका दो से लेकर सात फिट बालू तक से ढक गया, किसानों को यह मालूम नहीं कि उसकी जमीन कहां गई, बालूओं से ढके इस जमीन को साफ किया जाएगा या फिर यह बालू से भरा खेत एैसा ही रहेगा ? इस पर सरकार की क्या राय है यह अब तक लोगों के सामने स्पष्ट नहीं है ? इसे तुरन्त सपष्ट किया जाए ?
बिहार से शहर को प्लायन:- प्लायन के कारण शहर की आबादी लगातार बढ़ रही है इस प्लायन में एक बहुत बड़ा हिस्सा बिहार से आए मजदूरों का है। इन मजदूरों में सबसे बड़ा हिस्सा छोटे किसानों या खेत मजदूरों का है। लगातार बाढ़ ने बिहार के उन इलाकों को इस तरह बर्बाद किया है कि गांव छोड़ कर चले जाने के सिवाय और कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। तीन फसल से जिन्दगी की जरूरत न पूरा कर पाने वाले किसानों को एक फसल पर सब्र करना पड़े या वह भी नहीं हो तो गांव छोड़कर षहर जाने के इलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता। मजबूरी में शहर आकर जिन्दगी चलाने वालों पर यह बार-बार इल्जाम लगाया जाता है कि शहर की आबादी इन्हीं लोगों से बढ़ रही है। जबकि यही मजदूर शहर को चलाते हैं। खाने-पीने का सामान लाने से लेकर सफाई व रख रखाव की पूरी जिम्मेदारी इन्हीं मजदूरों द्वारा होती है। प्लायन का इल्जाम या आबादी बढ़ाने का इल्जाम उन लोगों पर नहीं लगता जो उच्च शिक्षा के लिए शहर जाते हैं एंव पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं किसी रोजगार से जुड़ जाते हैं। क्या उन पर प्लायन का इल्जाम इस लिए नहीं लगता क्योंकि वह किसी अदालत के जज या वकील, थाने के पुलिस या कालेज के प्रोफेसर, या किसी बड़ी कम्पनी में बड़ी आमदनी प्राप्त करने वाले व्यक्ति। भूख एक सत्य है जो हर किसी को लगती है। कुछ लोग मानते हैं कुछ लोग नहीं मानते।
बिहार में बाढ़ के आने का कारण वह छोटे किसान बिल्कुल नहीं हैं लेकिन फिर भी उनहें परेशान होना पड़ता है। अगर सरकार को गांव से अधिक प्लायन राकना है तो गांव में रोजगार के बेहतर इंतजाम करने होंगे। बाढ़ एवं अन्य आपदाओं का सामना करने के लिए हर तरह से तैयार रहना होगा ताकि किसान एंव उनके बच्चे खुद की जिन्दगी गांव में भी सुरक्षित महसूस करें।
साथियों ऊपर के तमाम बिन्दुओं पर अगर हम ध्यान दें तो पता चलता है कि बिहार में अक्सर बाढ़ आने का कारण लापरवाही नहीं बल्कि एक सुनियोजित साजिश है जिसे बिहार की आम सीधी-सादी जनता समझ नहीं पाती और इस अफवाह का षिकार हो जाती है कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण वह बर्बाद हुए हैं। इस अफवाह की आड़ में सरकार में बैठे तमाम अधिकारियों को सैलाब का खतरा या तटबंध टूट कर सैलाब का आना एक बड़ी आमदनी का बड़ा साधन दिखाई देता है।
No comments:
Post a Comment