Sunday, September 26, 2010

बिहार के प्रवासी मजदूर एंव आगामी विधान सभा चुनाव



बिहार के प्रवासी मजदूर एंव आगामी विधान सभा चुनाव

सदरे आलम
सितम्बर 2010
बढ़ती बेरोज़गारी एंव बदहाल होती स्थिति के कारण रोज़गार की तलाश में बिहार से मजदूरों का प्रवास करना वर्षों से लगातार जारी है। 1990 के भूमण्डलीकरण के कारण उस में और बढ़ोत्तरी हुई है एंव पिछले 10 सालों से लगातार बाढ़ व सूखे के कारण इसके प्रतिशत में और एजाफा हुआ। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता जैसे शहरों में बिहारी प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, पंजाब जैसे राज्य में खेती के लिए खास तौर पर बिहार से खेत मजदूर मजदूर बुलाए जाते हैं। बिहार से अन्य राज्यों में प्रवासी मजदूरों के आने जाने के लिए बिना आरक्षण वाली जनसेवा एंव जनसाधारण एक्सप्रेस रेलगाडियां़ चलाई गई हैं। इसे अगर प्रवासी एक्सप्रेस के नाम से बुलाया जाए तो कोई गलत न होगा।

यू तो पूरे समाज में गरीबों को घृणा की नजर से देखने की प्रवृति हमारे समाज में बढ़ी है लेकिन बेरोज़गारी व बदहाली के कारण हो रहे प्रवास से अन्य शहरों एंव राज्यों में बिहारी मजदूरों को बहुत लाचार की नजर से देखकर छींटाकशी एंव बदनाम किया जाता है। सबसे अधिक मेहनती होने के बावजूद कभी आसाम में बिहारी के नाम पर हमलों का सामना करना पड़ा है तो कभी मुम्बई में मनसे के राजठाकरे उत्तर भारतिये के नाम पर, कभी दिल्ली की मुख्यमंत्री तो कभी उपराज्य बिहारी मजदूरों को निशाना बनाते हैं। ऐसा महसूस होता है मानों बिहारी मजदूरों को अन्य शहरों में सम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं है। यहां एक बात और भी गौर तलब है कि कानून के जानकारों का भी ऐसा समय में जबान बन्द रहता है।

जनतंत्र में सम्मान: बिहारी प्रवासी मजदूरों में अधिक वह हैं जो असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। इन मजदूरों पर जब कभी किसी भी प्रकार का हमला होता है, उस समय कोई राजनैतिक पार्टियाँ या प्रदेश के बड़े नेता लालू, नितीश, राबड़ी, रामविलास, सुशील मोदी, शरद यादव आदि जैसे आम तौर पर मजदूरों के समर्थन में नहीं आते हैं। यहां एक बात और गौर करने की है कि सभी राजनैतिक पार्टियां इस मुददे पर खुद को वचनवद्ध मानती हैं एंव उनके संगठन का इस भेद भाव के खिलाफ पारित प्रसताव भी होगा जो केवल दिखाने के लिए है।

ऐसा इस लिए होता है क्योंकि यह जनतंत्र है। जनतंत्र में केवल उनका सम्मान किया जाता है जो वोट देते हों, जिनका वोट नहीं होता उनके मुद्दे हमेशा दबे रह जाते हैं। और ये बिहार के असंगठित क्षेत्र के प्रवासी मजदूर इन से किसी का न तो वोट बढ़ता है और न किसी का वोट घटता है इस लिए न तो ये घर के हैं और न घाट के हैं।

बिहार चुनाव आज से ठीक एक महीने बाद शुरू होने जा रहा है इस चुनाव में बिहार से बाहर रह रहे (अन्दाजन) 50 लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों में से आधे से अधिक का इस देश की जनतंत्र में कोई भूमिका ही नहीं है। और जनतंत्र में जिसकी कोई भूमिका नहीं होती उसका सम्मान तो दूर की बात है उसके हक की कोई बात ही नहीं करता।

जनतंत्र में सभी के मताधिकार को सुनिश्चिित करना बहुत जरूरी है तभी उसके हकों की रक्षा सम्भव है।

इस तरह के वह तमाम बालिग मतदाता चाहे वह मजदूर हो या छात्र या किसी खास वजह से निवास कर रहे हों उनके मत को शामिल कराने के लिए उन्हें चुनाव के समय वापस जाने, पोस्टल बैलेट द्वारा अपने मताधिकार का प्रयोग करने, अन्य शहरों में मतदान केन्द्र बनाकर मत लेने या कोई और रास्ता निकालने की जरूरत है ताकि देश के सभी नागरिक अपना मत दे सकें।

हमारे देश में आर्मी एंव पोलिंग बूथ पर तैनात कर्मचारियों के लिए पोस्टल बैलेट का प्रावधान है। यह तय है कि बिहार के इस विधान सभा चुनाव में प्रवासी मजदूरों के दाताधिकार को पाना समभव नहीं लेकिन अगर आने वाले दिनों में इसे प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ना है तो भी इसे चुनावी मुददा ही बनाना होगा। क्योंकि अन्य समय में भी इस मुददे पर बात तो होती रही है लेकिन इस पर कोई पार्टी या बड़े नेता इसे मुददा नहीं बनाते।

प्रवासी मजदूरों के मताधिकार के प्रयोग कर उनके सम्मान की रक्षा में राजनैतिक में हस्तक्षेप कर सम्मान से जीवन जीने के लिए परामर्श की ज़रुरत है।



बिहार चुनाव 2010: मुददा त्यौहार का उपहार या लोगों की परेषानी


बिहार चुनाव 2010: मुददा त्यौहार का उपहार या लोगों की परेषानी
6 सितम्बर 2010
सदरे आलम
रमजान के पाक महीने में चीफ एलेक्ष्न कमिष्नर जनाब कुरैषी साहब ने आज दिल्ली में प्रेस कान्फ्रेंस कर बिहार चुनाव के तारीखों की घोषणा की। काॅमनवेल्थ गेम्स एंव माओवाद को मददे नजर रखते हुए 6 चरनों में चुनाव अक्टूबर 21, 24, 28, नवम्बर 1, 9 और 20 को होंगे, 24 नवम्बर को वोटों की गिनती होगी एंव 27 नवम्बर तक सरकार का गठन होना है।

बिहार जैसा पिछड़ा राज्य जिसे न केवल जातिवाद, सामंतवाद, गबन, घोटाले, सैलाब व गुण्डा गर्दी ने बरबाद किया बल्कि राजद की सरकार के साथ-साथ जदयू की पिछली सरकार के बड़बोले पन एंव विकास के डंके ने भी भरोसा तोड़ा है। विकास के नाम पर पढ़े लिखे तबके को अपने करीब लाने की कोषिष की गई जबकि पिछली सरकार के कार्य काल में विकास कम सैलाब व सूखे से बिहार का विनाष ज्यादा हुआ है। इस मामले में लालू, रामविलास और सुषील मोदी को भी बिहार की सम्सयाओं के हल के रास्ते की जानकारी नहीं, हवा में तीर चलाने के इलावह इनके पास भी कोई ठोस दूसरा रास्ता नहीं है। ऐसे समय में मुद्दों से बचकर निकलने का रास्ता इन सब के पास मौजूद है।

वर्ष 2010 के चुनाव का एलान ऐसे समय में हुआ है जब ईद जैसा त्यौहार सामने है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, अब से इस चुनाव के खत्म होने तक दुर्गा पूजा (17 अक्टूबर) दिपावली (5 नवम्बर) छठ (11 नवम्बर) और बक्ऱेईद (17 नवम्बर) को मनाये जाएंगे।

यहां प्रष्न यह खड़ा होता है कि क्या इस चुनाव का मुददा बिहार की परेषानी सूखा, बाढ़, पलायन, बेरोजगारी, खेती, षिक्षा आदि होगी या फिर मुद्दे से भटकाने के लिए लोगों में त्यौहार के नाम पर तरह-तरह के इतर से लेकर दिपावाली की मिठाइयां, पटाखे, सेवईयां व बक्रे़ईद के कोफते और कबाब के साथ बिहार के मुददों को भी इन तथा कथित नेताओं द्वारा हजम करने की कोषिष की जाएगी।

पर्व त्यौहार हमारी संस्कृति का हिस्सा हंै, यही वह मौके हैं जब हम अपने पुराने गिले-षिक्वे को भूल कर गले मिलते हैं एंव सेवैयां व मिठाईयां खाते हैं। लेकिन इस बार के त्यौहारों की मठाई को खाते समय अगर ध्यान न रखा गया तो इसका मजा आने वाले 5 सालों तक लिया जा सकता है।

आज जरूरत इस बात की है कि हम ईद, दुर्गा पूजा, दीपावली, छठ, एवं बक्रेईद को पूरे हर्ष व उल्लास के साथ मनायें लेकिन कहीं ऐसा न हो कि हमारे त्यौहार का दुरुपयोग हो और हम तमाषाई बन कर देखते रह जायंे।

हमें अपने त्यौहार का आनन्द लेते हुए राजनैतिक मुद्दे बेरोजगारी, बदहाली, सैलाब, सूखा, षिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, बिजली, सुरक्षा, मनरेगा एंव राषन व्यवस्था जैसे मुद्दों को सामने लाना है। बिहार विधान सभा चुनाव के समय में एक बात और बहुत जोर से कहने की जरुरत है कि चुनाव किसी विधान सभा क्षेत्र के जातिये समीकरण में मास्ट्री हासिल करने का नाम नहीं, बल्कि समाज को बेहतर बनाने के राजनैतिक मुद्दों को सफलता पुर्वक जमीन पर उतारने के तरीके पर मत प्राप्त करने का नाम है।

कोषी सैलाब 2008: राष्ट्रीय आपदा की राहत का सच


कोषी सैलाब 2008: राष्ट्रीय आपदा की राहत का सच

सदरे आलम
जून 2010
बिहार में सैलाब आने का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन 2008 में नेपाल के कुसहा गांव में कोषी तटबंध टूटकर जो सैलाब आया उसने तटबंध, आपदा प्रबंधन, राहत कार्य एवं शासन व्यवस्था को न केवल प्रष्नों के दायरे में खड़ा किया बल्कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों को इन सभी मुद्दों पर दोबारा सोचने पर भी मजबूर किया। आज यह सवाल जोरों पर है कि कोषी पर तटबंघ हो या न हो, आपदा प्रबंधन के नए तरीके क्या हों ? एवं राहत कार्य को तुरन्त प्रभावी बनाने के लिए वह कौन सी व्यवस्था हो जो सबसे अधिक कारगर साबित हो।

जहां एक तरफ सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के सामने यह सभी सवाल एक चैलेंज के रूप में उभर कर सामने आया है वहीं दूसरी ओर सरकारी अफसरों के लिये अपदा राहत कोष एवं पुर्नवास राषि माले गनीमत साबित हुई है। एक ऐसा सैलाब जिसने बिहार के 8 जिलों के बहुत बड़े भाग को तबाह कर दिया, हजारों लोग एवं लाखों जानवर मारे गये। 2 से 3 महीने तक पूरा इलाका पानी में घिरा रहा, इस के बावजूद राहत सामग्री को बांटने के बजाय सरकारी अफसरों एवं मुख्या व उनके इर्द-गिर्द रहने वालों के द्वारा इस आपदा राहत कोष को एक आमंदनी का जरिया बनाया गया। सैलाब के दौरान यह षिकायत लगातार आ रही थी कि आपदा राहत के नाम पर सरकार लोगों के साथ धोखा कर रही है।
आपदा राहत के लिए नाव तो आए थे लेकिन सरकारी अफसरों ने इलाके के दबंग लोगों को आमदनी के लिए या फिर लूटने के लिए दे दिए थे। नाव से केवल उन लोगों को निकाला जा रहा है जो लोग पैसा दे रहे थे।

फौज जिसे राहत के कार्य के लिए बुलाया गया था वह भी मनमानी कर रही थी। लाषों को निकाल कर उसे सही स्थान पर पहुंचाने, षिनाख्त कराने, पोस्ट मार्टम कराने के बजाए पानी के तेज बहाव के बीच छोड़ देती थी ताकि लाष बहकर इलाके से बाहर हो जाए। ऐसे ही कितने ही मनुष्यों और पशुओं की लाषे पानी में बहा दी गई जिसका प्रषासन के पास कोई हिसाब नहीं है और न ही उन्हें मौत मानने पर तैयार है।
आपदा राहत के लिए जो मेगा कैम्प लगाए गए थे उसमें व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं थी और न ही लोगों को कोई सुविधा मिल रही है।

प्रारम्भ में राहत के नाम पर जो 2250, 2090 रूपये एवं एक क्विंटल अनाज दिया जाना था उसमें षुरु से ही बहुत ज्यादा धांधली हुई है।

हेलीकाॅप्टरों से जो खाने का सामान गिराया जा रहा था उससे आपस में भगदड़, छीना झपटी और मार पीट की स्थिती उत्पन हुई थी, साथ ही साथ लोगों ने अपने रहने के लिए जो प्लास्टिक के घरौंदे बनाए थे उसे भी हेलीकाॅप्टर की तेज हवा उड़ा ले गई। बाढ़ में फंसे लोगों को निकालने के लिए कुछ इलाकों में हेलीकाफ्टर 24 अगस्त को पहुंचा तो कुछ इलाकों में 2 अगस्त को, जबकि तटबंध 18 अगस्त को ही टूट चुका था। सरकारी सूचना के मुताबिक 202 हेलीकाॅफ्टर एंव एयरक्राफ्ट 21 अगस्त से काम कर रहे थे।
ऊपर के सभी प्रष्न वो हैं जो सैलाब के दौरान उठ रहे थे एवं लोगों में प्रषासन के प्रति गुस्सा पैदा किये था। कई महीने बीत जाने के बाद जब इलाकों से पानी निकल गया एवं जिन्दगी को दोबारा पटरी पर लाने की कोषिष शुरू हुई तो सरकारी अफसरों के काले कारनामों की जानकारीयों ने लगातार लोगों का हौसला तोड़ा जिस कारण लोगों को इलाका छोड़ शहर चले जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखा।

2250 एवं 2090 रूपये व 1 क्विंटल अनाज देने के मामले ने ही सरकारी कर्मचारियों के नियत को साफ कर दिया। यह पैसे बहुत मुष्किल से लोगों को प्राप्त हुए परन्तु इनका औसत क्या है ? यह सवाल एक जानकारी प्राप्त करने का विषय है।

इलाके के लोगों का मानना है कि सैलाब में हजारों लोगों की मौतें हुई है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है शायद फौज को यह निर्देष था कि जो भी लाष दिखाई दे उसे पानी की तेज धार में बहा दिया जाए ताकि सरकार को मुआवजा न देना पड़े। जिन लोगों की मौत हुई उनमें बहुत कम लोगों के शव निकाले जा सके। बाद में सरकार ने एफ. आई. आर. दर्ज होने एवं पोस्टमार्टम रिर्पोट को मौत का सबूत माना। आज सरकार के मुताबिक लगभग 600 लोगों की मौतें हुई है। इसमें भी ऐसी घटनाएं सामने आई है कि जिन लोगों ने मौत के मुआवजे के लिए कुछ पैसे दिए उन्हें ही यह 1 लाख की राषि मिली।

इन इलाकों में इस सैलाब में सबसे ज्यादा जानवरों की मौत हुई, गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी और सुअर लाखों की संख्या में मरे। जिसका मुआवजा लोगों को नाम मात्र भी नहीं मिला। लोगों को जानवर के मरने के मुआवजे को सरकार की लोकल अथोरिटी से पास कराना होता है। यह वह अथोरिटी है जो अलग से पैसे लिए बिना एक भी काम ही नहीं करती। जिनको भी जानवरों के मरने का मुआवजा चाहिए उनके लिए जरूरी है कि वह अधिकारियों को पहले कुछ चाट दे। इस मामले में यह भी सूचना मिली है कि जिन लोगों ने कभी जानवर नहीं पाले उन्हें भी उनके जानवर के मरने का मुआवजा मिला है। एक सूचना यह भी आई है कि जिनके पास 5 गाय-भैंसें डूब रही थी, उन्हें नाव द्वारा पानी से बाहर निकालने के लिये भैंस को किराया के रूप में देना पड़ा है।

उस सैलाब की तबाही का मंजर आज खेत में जमा बालू को देखकर लगाया जा सकता है। खेत में 1 से 10 फिट तक बालू जमा हैं मगर उस पर सरकार खामोष है। खेत के बरवाद हो जाने के कारण फसल का नामो निषान नहीं है। इन खेतों का जो मुआवजा सरकार ने तय किया है वह सरकार को ही मालूम है लोगों को इसकी कोई जानकारी नहीं है।
आप सोच सकतें हैं कि जिस सैलाब ने खेत में 10 फिट बालू भर दिया, उसने घरों और घर के सामानों का क्या किया होगा ? लोगों के हाथ में मुआवजे का चेक है लेकिन बैंक में एकाउन्ट नहीं होने के कारण उन्हें कैष नहीं मिल पा रहा। बैंक में अकाउन्ट तो कैसे खुल क्योंकि सारे कागजात तो पानी में गल गये या बह गये, अब हलफनामा बनें एवं उसे सरकारी अधिकारी सत्यापित करे तब जाकर बैंक में अकाउन्ट खुलने की स्थिती बनेगी। सैलाब के 1 साल बाद भी बैंक के आस पास सैकड़ों लोगों की भीड़ देखी जा सकती थी। जिन्हें चेक मिला एवं बैंक में अकाउन्ट थे उनके मुताबिक सरकार ने उन्हें ेैक तो दे दिया लेकिन बैंक को सरकार ने पैसे ही नहीं दिये, जब यह बात उठी कि पैसे क्यूं नहीं दिये गये ? तब सरकार का जबाव था कि केन्द्र से जो पैसे राष्ट्रीय आपदा के नाम पर आने थे वह नहीं आये।

कुसहा में तटबंध को टूटे आज लगभग 22 महीने हो चुके हैं लेकिन न तो लोगों का पुर्नवास हुआ है और न ही अब तक लोगों को राहत का पैसा मिला है जबकि बिहार में कोई अन्य राज्यों वाली सरकार नहीं बल्कि सुषासन वाली सरकार काम कर रही है। 22 महीने के बाद भी लोगों में पुर्नवास को लेकर गुस्सा है। जानकारी प्राप्त करने पर लोगों का मानना था कि पैसा आया भी एवं खर्च भी हुआ लेकिन खर्च लोगों पर नहीं बल्कि अधिकारी एंव चुने हुए प्रतिनिधीयों ने अपने ऊपर खर्च किया है। हमने बाढ़ के 22 महीने बाद पनर्वास एंव मुआवजे से जुड़े सभी पहलूओं पर जानकारी हासिल करने की कोषिष की जो इस प्रकार है -

आपदा राहत एंव पुर्नवास के लिए बैंक का पूरी तरह दु्रउपयोग किया गया है, जिसमें सरकारी अफसरों से लेकर बैंक मैनेजर तक सभी शामिल हैं और यह हालात इस इलाके के बहुत से बैंकों की है। चाहे जानवरों के मरने का मुआवजा हो या परिवार के बरबाद होने का या फिर मकान क्षति पूर्ति का सवाल, जिन्हें चेक मिलना चाहिए था उन्हें मिला ही नहीं लेकिन बैंक से पैसे निकासी हो चुके थे। ऐसे मामले हजारों की संख्या में हो सकते हैं। जानकारी के अनुसार एक व्यक्ति को जब यह पता चला कि उसके नाम से रूपये 10,000 रूपये निकासी हो चुके है, उसने जब मुखिया से जानकारी ली तो मुखिया ने उसे 7,000 रूपये दे कर चुप हो जाने को कहा और वह अपने हिसाब से चुप है।

एक जानकारी के अनुसार छातापुर के बहुत से लोगों को इस बात की सूचना मिली कि उनके नाम पर बैंक से पैसों की निकासी हो चुकी है। उन्होंने इसकी सूचना डी. एम. को दी। जन दबाव के कारण जब बी. डी. ओ. श्री भगत से पूछा गया तो उसका जवाब था कि, ‘चेक बुक खो गया है।’ इस पर और अधिक छानबीन एंव जन दबाव के कारण बी. डी. ओ. एवं सी. ओ. 3 महीने से जेल में हैं, उन्होंने बैंक केे मैनेजर से मिल कर सभी चेक कैष करा लिए। इस हादसे के बाद बैंक पूरी तरह शक के दायरे में है। बैंक के आला अधिकारियों को जब इस बात की सूचना मिली तो उन्होंने उन अधिकारियों का भी तबादला करा दिया।

एक जानकारी के अनुसार मलहनमा गांव में सरकार के द्वारा जो मेगा कैम्प लगाया गया था उस कैम्प में इन्धन के लिए त्रिवेणी गंज अनूमंडल कैम्पस से 25 बडे़ पेड़ काटे गये एंव मेगा कैम्प के खर्च में एक बड़ा खर्च इंधन की खपत भी दिखाया गया है। इसी मेगा कैम्प के नाम पर राजेष किराना स्टोर त्रिवेणी गंज के नाम पर 25 लाख का बिल भी खर्च में दिखाया गया है जबकि त्रिवेणीगंज में इस नाम का कोई किराना स्टोर है ही नहीं।

पढ़े लिखे लोगों द्वारा नितीश कुमार के शासन काल को बिहार में प्रगति का शासन काल माना जा रहा है। लोगों का मानना है कि इस शासन में गुन्डा गर्दी कम हुई है लूट पाट में भी कमी आई है लेकिन इस बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के लोगों के लिए सरकारी गुन्डा गर्दी सातवें आसमान पर है। इससे पहले सरकारी अफसर मार खाकर काम किया करते थे अब सरकारी अफसर पैसा लेकर मनमाने तरीके से लोगों को गालियां सुना कर काम करते हैं। प्रषासन सख्त है ?

नितीष सरकार के बारे में एक खुष फहमी यह भी है कि इस दौर में सड़कें खूब बनी एंव गांवों को शहरों से जोड़ा गया है। मुमकिन है कि यह काम बहुत से इलाके में हुआ हो लेकिन राज्य में खास सड़को को छोड़ कर गांव एंव बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की स्थिती आज भी उसी प्रकार की है। इस बाढ़ प्रभावित दो जिलों को जोड़ने वाली मेंन सड़कों को ठीक किया गया है बाकि सब यूं ही पड़ी हैं, पैदल जाने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं। वह तमाम छोटे पुल जो उखड़ कर दूर जा गिरे थे आज भी सुषासन सरकार के इन्तजार में है।

सैलाब ने लोगों को जिस हाल में तबाह कर छोड़ा था वह आज भी उसी हालत में हैं। गांव में जाने के लिए सड़कें नहीं हैं तो कोई गाड़ी गांव में आ नहीं सकती। इसलिए ईंट बालू सीमेन्ट भी गांव में लाना मुष्किल है। इन समानों को बड़ी मात्रा में सर पर उठा कर बहुत दूर ले जाया भी नहीं जा सकता। लोग परेषान होकर जिन्दगी जीने के आदि हो गए हैं।
सरकार ने मकानों को पूर्ण क्षति एंव आंषिक क्षति के रूप में सर्वे कर सूची बनाई है, पहले पूर्ण क्षति के लिए 10,000 रूपये एंव आंषिक क्षति के लिए 2,500 रूपये की दर सुनिष्चित की गई थी, बाद में पूर्ण क्षति के लिए 55,000 रूपये की राषि तय की गई। आज इन इलाकों में 55,000 रूपये की राषि प्राप्त करने के लिए पहले 10,000 रूपये अपने इलाके के मुखिया को देना अनिवार्य है। ये राषि नहीं दने पर आप को रूपये 55,000 की राषि नहीं मिलेंगे और आप इलाके के उन बेवकूफों में शामिल होंगे जो मुफ्त के 45,000 रूपये को नहीं ले रहा। सब कुछ उजड़ जाने के बाद 45,000 रूपये किसी भगवान से कम तो नहीं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि केवल त्रिवेणीगंज ब्लाक के 6 पंचायतों में लगभग 4,800 रूपये घरों को पूर्ण क्षति ग्रस्त के रूप में आंका गया। अगर सभी घरों से रूपये 10,000 ही गए तो लिए तो यह राषि रूपये 480,00,000 होते हैं। अगर हम इस राषि में 25 प्रतिषत कम भी कर दें तो भी यह राषि छुपाई नहीं जा सकती। इसका असर राषि को गबन करने वालों की जिन्दगी पर जरूर पड़ेगा। चंूकि बाढ़ राहत में बहुत अधिक गबन हुआ है एंव इसके नतीजे के तौर पर सरकारी अफसर, मुखिया, एंव लोकल नेताओं द्वारा नए मकान बनाए जाने एंव नई गाड़ी खरीदे जाने को इसके सबूत के रूप में लोगों द्वारा समझा जा रहा है, जिसका गुस्सा इन इलाकों के लोगों में है।

ष् जानकारी के अनुसार मुखिया, लोकल नेता एंव सरकारी अफसरों की स्थिती में पिछले एक साल में बहुत बदलाब आया है। इन लागों के द्वारा 10 से 20 लाख तक को मकान बनाया गये है। वह महोदय जो स्कूटर से चलते थे आज 8 से 15 लाख तक की गाड़ी में चल रहे हैं। जिन मुखियाओं के घरों में अब से पहले शादी 1 लाख में हुई थी अभी उनके घरों में एक शादी 10 लाखों में हुई है। बड़ी संख्या में इन सज्जनों द्वारा जमीन भी खरीदी गई है। मुमकिन है कि यह जमीन उनके नाम पर न खरीदी गई हो। कुछ ने लाखों में बैंक का कर्ज चुकाया तो किसी ने लाखों में ट्रेक्टर अप टू डेट कराये हैं। किसी ने अपनी स्थिती को हमेषा के लिए बेहतर बनाने के लिए ईट चिमनी खोला तो किसी ने नेपाल जाकर शराब एंव शबाव की अन्दर छुपी इच्छा को पूरा किया। ध्यान रहे कि यह हमारे समाज के छोटे नेता हैं जो कल एम. एल. ए. एंव एम. पी. बनेंगे। जैसा कि पहले भी आया है सरकार के मुताबिक लगभग 600 लोगों की मौंत हुई है। लेकिन लोगों का अनुमान है कि 20,000 लोगों की मौत हुई होगी जिसका पता लगाना हमारी सरकार के लिए जरुरी है लेकिन सरकार ने इस आंकड़े को टटोलने की कोई कोषिष नहीं की। हमारी जानकारी के मुताबिक त्रिवेणी गंज के कोरिया पटटी पश्चिम पंचायत में 9 लोगों की मौंत हुई, जिसमें 8 महिलाएं थी इनमें से किसी एक के परिवार को भी मुआवजा नहीं मिला। इनके परिवार वालों के मुताबिक हमसे कोई पूछने भी नहीं आया कि यहां किसी की मौते भी हुई है ? सुसुषासन का यही असली चेहरा है।

सैलाब के दौरान राहत के लिए हेलीकाॅप्टर एंव फौज के साथ साथ बड़ी तादाद में इलाके की नौकाओं से भी मदद ली गई। यह बात तो पिछले साल भी आई थी कि नाव का किराया अब तक लोगों को नहीं मिला है। 22 महीने के बाद आज की वह स्थिती जैसी की तैसी है। एक नाविक ने अपनी स्थिती को बताते हुए कहा कि बाढ़ के दौरान पुलिस ने हमारे नाव को जब्त कर ली एंव हम तीन लोगों को भी नाव के साथ ले गए। मधेपुरा में हमें एक पेपर दिया गया और लोगों को पानी से निकालने के लिए लगा दिया गया। हमारे लिए न खाने का इन्तजाम था न रहने का। हम तीनों दिन रात बारी बारी से नाव चलाते रहे। एक महीना 1 दिन जब पूरा हुआ तो कुछ बन्दूक धारी ने बन्दूक सटा कर हमारा नाव छीन लिया और वहां से भाग जाने को कहा। हमने इसकी सूचना मधेपूरा के अधिकारी को दी लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई है। हमारा 17 हाथ बड़ी नाव थी जो एक लाख की थी। हम तीन लोग एक महीने एक दिन काम किया, उसका भी कोई मेहनताना नहीं मिला, 2 साल से हमारे पास कोई काम भी नहीं है हमको तो केवल नाव ही चलाना ही आता है और नाव है नहीं। हम 2 साल से बैठ कर नदी किनारी केकड़ा पकड़ रहे हैं और खा रहे हैं।
अगर सरकार यह चाहती है कि लोग आपदा के समय प्रषासन की मदद करें तो इस तरह की दस्तान के जिम्मेदार अधिकारियों को सजा देने के साथ साथ नाव की पूरी कीमत, नाव का पूरे दो साल का किराया एंव तीनों की पूरे साल की मजदूरी देनी चाीहए। इस नाविक के मुताबिक ऐसी कहानी 50 से अधिक नाविकों के साथ हुई है जो रोज सरकारी आफिसों का चक्कर काटते रहते हैं। इनके मुताबिक अब यह नाविक सरकारी दफ्तर का चक्कर काट काट कर थक चुके हैं, घरों में शान्ति नाम की कोई चीज नहीं रह गई।
कोषी सैलाब 2008 को राष्ट्रीय आपदा घोषित की गई। उस आपदा से निपटने के लिए करोड़ों करोड़ रूपये बिहार सरकार के पास आये लेकिन लोगों की स्थिती में कोई खास सुधार नहीं हुआ। ये पैसे कहां से आए एंव कहां को गए इस पर एक विस्तार से जानकारी लेने की जरूरत है एंव हेलीकाॅप्टर से लेकर नाव हुए तक खर्च का लेखा जोखा सरकार से मांगने की जरुरत है साथ ही साथ मुर्गी से लेकर आदमी तक एंव बालू से ढ़के खेत से लेकर मकान क्षति तक के मुआवजे को पारदर्षी बनाने की जरुरत है। इस के लिए सर्वे, आर.टी.आई., अगर मुमकिन हो सके तो सरकारी अधिकारियों के साथ बात-चीत, अखबारों से जानकारी, इलाकाई सामाजिक लोगों से मुलाकात आदि करने की जरूरत है ताकि एक ठोस जानकारी के आधार पर सरकार को कदम उठाने के लिए बाध्य किया जा सके।

Saturday, September 25, 2010

नेपाल ने पानी छोड़ा है ?


क्या ये सच है कि नेपाल ने पानी छोड़ा है ?
या सोच समझ कर हमारा ध्यान किसी ने मोड़ा है...

सदरे आलम
मई 2009

ज्ैासा कि आप जानते हैं सैलाब के कारण पिछला दो साल बिहार के लोगों के लिए तबाही का साल रहा है। 2007 में समस्तीपुर में बाँध टूटने के कारण लाखो लोगों की सालों साल की मेहनत एक झटके में बर्बाद हो गई। 2008 में नेपाल सीमा के अन्दर कुसहा तटबंध टूटने से बिहार के 3 जिले नीस्त-व-नाबूद हो गये। इन दोनों सालों में बिहार के इन इलाकों में इस बात की खूब चर्चा थी कि नेपाल ने पानी छोड़ा और हम बर्बाद हो गये। क्या यह सही है कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण बिहार के तीन चार जिले अक्सर बर्बाद हो जाते हैं या इसके पीछे कारण कुछ और है आओ इसका पता लगाए ?
बिहार में नदियों का जाल बिछा है, बरसात के मौसम में इन सभी नदियों में अधिक पानी आ जाने के कारण सभी नदी-नाले आपस में मिल जाते हैं, और हर साल एक विकट परिस्थिति पैदा हो जाती है। उस परिस्थिति में हर बार यही कहा जाता है कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण नदी में बाढ़ आया है ?
बिहार के मैदानी इलाकों में बरसात के मौसम में बाढ़ आने का इतिहास काफी पुराना है लेकिन देश के आजाद होने के एक साल बाद यानी 1948 में बाढ़ आने के बाद से तटबंध बनने का काम शुरु हुआ जो अगले 15 सालों तक गंगा, कोसी और उसकी सहायक नदियों पर इसे बनाने का सिलसिला जारी रहा। बिहार के वह तमाम इलाके जहां बारिश का पानी आने का खतरा था धीरे-धीरे तटबंध बनाकर उन इलाके को सुरक्षित बनाया गया। इन तटबंधों की देखरेख के लिए करोड़ों रुपये का बजट हर साल आवंटित कराया जाता है। यह आवंटित बजट कैसे खर्च होता है इस पर हम आगे चर्चा करेंगे।

यूं तो नदियों में सैलाब के आने का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन तटबंध टूट कर सैलाब आने का सिलसिला 1987 से शुरू हुआ और फिर 2002, 2004, 2007 और 2008 में तटबंध टूटकर सैलाब आया। इन सभी वर्षों में हर बार यही कहा गया कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण सैलाब आया ? हमें यह कहने से पहले इसकी गहराई में जाना जरुरी है कि क्या नेपाल के पानी छोड़ने के कारण बाढ़ आता है या इस अफवाह के पीछे कारण कुछ और है ? आओ इसका पता लगाए।
भारत-नेपाल संधि:- भारत नेपाल कोसी संधि 1954 के मुताबिक नेपाल में कोसी पर बने तटबंध के रख रखाव की पूरी जिम्मेदारी भारत सरकार की है। एवं इसके देख रेख के लिए सीमा के नजदीक बीरपुर में इसका दफ्तर भी है। फिर 2008 में कुसहा तटबंध टूटने का जिम्मेदार नेपाल कैसे ? अखबारों और समाचारों से पता चलता है कि तटबंध के टूटने से पहले तटबंध में रिसाव था जिसकी पूरी जानकारी भारत सरकार को थी। कुसहा तटबंध के आस-पास के लोगों के मुताबिक तटबंध के टूटने से 2 दिन पहले से तटबंध से 5 फिट से ज्यादा चैड़े नाले का बहाव शुरु हो चुका था, जिसे तटबंध के जिम्मेदार अधिकारियों ने तुरन्त बन्द करने की पहल नहीं की और यह तटबंध 18 अगस्त 08 को टूट गया।

तटबंध के रख रखाव की जिम्मेदारी भारत सरकार की है, भारत-नेपाल सीमा पर देख रेख के लिये दफ्तर है, तटबंध के खराब हालत की सूचना पहले से सबको थी, तटबंध में रिसाव है यह जानकारी भी सरकार को पहले से थी, तटबंध के टूटने से 2 दिन पहले से तटबंध से नाले का निकल जाना। क्या यह सबकुछ भी भूल चूक से ही हो रहा था या फिर इसके पीछे भी कोई गहरी चाल है ? आओ इसका पता लगाए।

तटबंध का आवंटित बजट:- बिहार में आम तौर पर नदियों के तटबंध मरम्मत के लिये बजट नये सत्र यानी अप्रैल से बनना शुरू होता है। अगर अप्रैल में बजट बन गया तो मई-जून तक कागजी कार्यवाही से गुजरता है, फिर सभी अधिकारियों का बजट में प्रतिशत सुनिश्चित किया जाता है कि इस तटबंध में कितना इंजीनयर, कितना बड़े नेता, छोटे नेता, डी.एम एवं एस.डी.ओ का हिस्सा होगा ? इसके बाद ठेका निकलने की प्रक्रिया शुरु होती है, तब तक जुलाई का महीना आ जाता है और हर कमजोर तटबंध पर कटाव का डर शुरू हो जाता है। नदी में पानी भर जाने के कारण तटबंध पर काम करना मुश्किल होता है। क्या इस मुश्किल से इंजीनियरों को परेशानी होती है ? बिल्कुल नहीं ! इस परेशानी का इंतजार वह जान बूझकर करते हंै ताकि 5,000 बोरी मिट्टी लिख कर 500 बोरी मिट्टी डाल सके, 50 ट्रक बोल्डर लिखकर 10 ट्रक बोल्डर डाल सके और कहें कि कटाव में भस गया इससे तमाम अधिकारियों को करोड़ों बचाने का मौका मिलता है। इसी करोड़ों के बचाने के उद्देश्य से हर बार तटबंध मरम्मत पर काम देर से शुरु कराया जाता है। और अगर कोई तटबंध टूट गया तो फिर रिलीफ बांटने का दौर शुरू होता है।

रिलीफ का काम:- तटबंध के टूटने से एक तबाही आती है, ऐसी तबाही जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। हम जिसे बोतल में बन्द कर थैले में रख लेते हैं वही पानी हमे बर्बाद कर हमारे घर के उपर से निकल जाता है। फिर एक गड़गड़ाता हेलीकाप्टर हमारी तबाही का आंकलन करता हमारे भोले पन की कीमत तय करता है, हम इसे अपनी भाषा में बाढ़ रिलीफ फंड कहते हैं। लोगों के इस हालत को देख कर प्रधान मंत्री मगर मच्छ बन जाता है और रोता है। मुख्य मंत्री सेनापति बन कर फौज बुलाता है। महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अपने आगामी उद्घाटन समारोह में जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया जाता है। लेकिन इस बात की चिन्ता किसी को नहीं होती है कि जो रिलीफ फंड लोगों के लिए आवंटित किया जा रहा है वह लोगों तक कैसे पहुंचाई जाए। आखिर मंत्री एवं आला अधिकारी ऐसी हरकत भूल-चूक से करते हैं या फिर इसके पीछे भी कोई कारण है। आओ इसका पता लगाएं।

जब रिलीफ के लिए फंड आवंटित किया जाता है तब भी तटबंध मरम्मत बजट की तरह ही सबसे पहले ऊपर के अधिकारी अपना प्रतिशत तय करते हैं ताकि करोड़ों की डकैती बिना किसी बन्दूक पिस्तौल के हो सके। फिर रिलीफ का सामान कागज पर खरीदा जाता है और डूबते मरते लोगों तक रिलीफ पहुंचाने का प्रचार मंत्री महोदय मीडिया के सामने करते रहते हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल कुसहा तटबंध के टूटने के बाद अगस्त 2008 में देखने को मिला, तबाह हो चुकी 13 लाख जनता को बचाने के लिए एक हफ्ते के बाद 2 हेलीकाॅप्टर भेजा गया। शायद सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों को यह महसूस हुआ हो कि बिहार की जुझारु जनता एक हफ्ते तक बिना दाना-पानी के छतों, छप्पड़ों, पेड़ों और ऊँचे स्थानों पर आराम से रह सकती है। बहादुर मंत्रियों को यह भी महसूस हुआ होगा कि जिन लोगों के कानों में हेलीकाॅप्टर की आवाज चली जाएगी उन्हें यह एहसास तो हो जाएगा कि सरकार ने हमें बचाने के लिए हेलीकाॅप्टर भेजा है, यानी हमारे देश में सरकार नाम की चीच ऊपर उड़ती है। 2 हेलीकाॅप्टर लोगों को बचाने की कोशिश करता रहेगा, तब तक पानी वापस लौट कर नदी में गिरने लगेगा। सरकार पर कोई इल्जाम नहीं लगा सकता कि उसने हर मुमकिन कोशिश नहीं की। इस 13 लाख बुरी तरह प्रभावित लोगों को तुरन्त बचाने के लिए सरकार के पास क्या इन्तजाम थे ?

नदी पर पुल निर्माण:- बिहार में नदियों का जाल बिछा है, इन जालों को लांगती लम्बी - लम्बी सड़क, एवं रेल योजना का काम ठेकेदारों द्वारा कराया जाता है। इन ठेकेदारों का मकसद मुनाफा कमाने के इलावा और कुछ नहीं होता। नदी के ऊपर बनने वाले पुलों की लम्बाई छोटी बनाने के कारण नदी के बहाव में रूकावट आता है। नदी के उपर बने जिन पुलों की लम्बाई 300 मीटर होनी चाहिए उसकी लम्बाई 200 मीटर कर दी जाती है और आसानी से पर्यावरण संरक्षण विभाग से उसके निर्माण के लिए हरी झंडी भी मिल जाती है। यह हरी झंडी जेब की हरियाली के लिए दी जाती है या गांवों एवं खेतों की हरियाली को बनाये रखने के ऊपर अध्ययन एवं परख के बाद यह आप भी जानते हैंै। दूसरी तरफ नदी के बीचो बीच खड़ा 4-5 पिलर नदी के बहाव को रोकता है जिस कारण पुल के पीलरों के सहारे बालू मिटटी का टीला बन जाता है। इन टीलों की सफाई के लिए जो पैसा आता है वह नदी की सफाई पर खर्च नहीं किया जाता। पुल की लम्बाई कम होने एवं पिलर के सहारे टीला बन जाने के कारण बरसात के मौसम में यह पुल नदी को रोक देती है, इस रुकावट के कारण नदी पुल के एक तरफ अपने तट पर दोनों ओर फैलते ही खतरे के निषान को पार कर जाती है। देखते ही देखते आस-पास के इलाकों में खतरा बन जाता है। इस खतरे से लोगों के बीच में फिर अफवाह बनाया जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा है ? ताकि कोई यह प्रश्न न करे कि पुल को बनाने की अनुमति पर्यावरण विभाग के किस अधिकारी ने दी या पुल की लम्बाई कम क्यू है एंव नदी में रुकावट बने बालू मिट्टी को निकाला क्यू नहीं गया ?
तटबंध की जरुरत नहीं:- बहुत से लोगों का मानना है कि जब नदियों के किनारे तटबंध नहीं थे तब बरसात के मौसम में बारिश के अनुसार पानी जमा होता था जो धीरे-धीरे दोनों तरफ फैलता था। बरसात के बाद पानी कम होते ही वापस नदी के रास्ते समुद्र में चला जाता था। लेकिन तटबंध के टूटने से जिस रफ्तार से सैलाब का पानी आता है उस समय हालात को काबू में लाना एवं तबाही का अनुमान लगा पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन यह बहस का मुददा है कि तटबंध हो ही नहीं या तटबंध के रख रखाव को भी जरूरी समझा जाए एवं गैर जिम्मेदार अधिकारियों को काला पानी भेजा जाए।

कटाव स्थान से सामानों की चोरी:- सरकारी अधिकारियों से बात चीत से पता चलता है कि तटबंध मरम्मत के लिए जो बोल्डर, बंडाल, तार एंव ईट जैसे सामानों का उपयोग कटाव को रोकने के लिए किया जाता है, बरसात के बाद उसकी चोरी हो जाती है एवं हर साल काम षुरू से करना पड़ता है। जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है कि कटाव पर काम देर से शुरू होता है एवं सामान बहुत कम लगाया जाता है, सरकारी अधिकारियों को यह कह कर खुद को बचाने का मौका मिल जाता है कि कटाव का सामान चोरी हो गया। हां यह माना जा सकता है कि जो सामान लगाया गया था वह चोरी हो गया तो इन दोनों तथ्यों में फर्क करना होगा कि कितना लगाया गया एवं कितना चोरी हुआ ? हम तटबंध कटाव पर सामान की चोरी होने को ठीक साबित नहीं करते हुए इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि बाढ़ से तबाह, रिलीफ व मद्द से महरूम एवं बेरोजगारी भूखमरी से परेषान जनता जब कभी “फील गुड” तो कभी “इंडिया शायनिंग” कभी “प्रमाणु शक्ति” तो कभी “चख दे इडिया” और कभी “जय हो” के नारे सुनती है तो वह अपने फील गुड के हिस्से को अपनी तरह बदहाल तटबंध पर रखे कुछ सरकारी बोल्डर, बंडाल, तार एंव ईट को बेचकर हासिल हुए पैसों के रुप में देखती है जो गल्त है। अगर सरकार को इस तरह की चोरी से बचना है तो सभी के लिए रोजगार का इन्तजाम करे फिर इन लोगों में राजनैतिक चेतना पैदा करना भी सरकार की जिम्मेदारी है कि भूख एक सत्य है चोरी असत्य। बाबा नागार्जुन के शब्द में:
‘‘ जब तक भूखा इंसान रहेगा- धरती पर तूफान रहेगा ’’ ।
क्लाईमेट चेन्ज, ग्लोबल वार्मिंग:- (वातावरण के गरम होने) का मुद्दा लगातार तूल पकड़ रहा है। पृथ्वी पर गरमी बढ़ है, इस गरमी के बढ़ने का कारण ईंधनों की बढ़ती खपत है। गर्मी के बढ़ने से पहाड़ों का बर्फ अधिक पिघल कर नदियों व समुद्रों में जा रहा है। जिस कारण पिछले कुछ सालों से सैलाब का खतरा लगातार बना रहता है।

आज पूरी दुनियां में कारों और तरह-तरह के गाड़ियों की संख्या बढ़ रही है। लोग शहर को रोशनी से चकाचैंध करने के लिए तरह-तरह के बड़े-बड़े लाईट उपयोग करते हैं। कारखानों का धुँआ हवा को दूशित एवं गर्म करता है। अगर धरती को गर्म होने से बचाना है ताकि पहाड़ों का बर्फ अधिक न पिघले तो उसके लिए जरुरी है कि निजी वाहन को शान की चीज नहीं बल्कि धरती की परेशानी समझनी चाहिए एवं ईधन के खपत को कम से कम करने की कोशिश को प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि धरती पर जीवन कायम रहे।

मजदूरों को उसके मेहनत की कमाई न देना, जमीनदारों द्वारा खेत मजदूर का शोषण होना, ठेकेदारों द्वारा अधिक से अधिक लाभ हासिल करना, तटबंध के पैसों में अधिकारियों द्वारा करोड़ों का गबन होना, रिलीफ के पैसों में घोटाला। इन तमाम गलत मुनाफे से सुखभोगी समाज अपने ऐश-ओ-आराम के लिए निजी वाहन खरीदता है एवं निजी सुविधाओं के इंतजाम के लिए बिजली, तेल एंव अन्य ईंधन का भरपूर उपयोग करता है इस गलत आमदनी एवं गलत खर्च के चक्र को समझते हुए इसका विरोध होना चाहिए कि अगर इसी तरह हमारे समाज का अमीर वर्ग गाड़ियों एंव एयर कन्डिश्नरों आदि का इस्तेमाल करती रही तो उनकी इन हरकतों से नदी के आस-पास के खेत एंव इलाके हर साल बर्बाद होंगे। करे कोई और भरे कोई के इस खेल को खत्म करना होगा।
बालू से ढके खेतों का क्या होगा ?:- तटबंध टूटने से सैलाब आया, तमाम तबाहियां हुई, समय बीतने के साथ पानी वापस समुद्र में चला गया। किसानों की हजारों एकड़ जमीन बर्बाद हो गई। पूरा इलाका दो से लेकर सात फिट बालू तक से ढक गया, किसानों को यह मालूम नहीं कि उसकी जमीन कहां गई, बालूओं से ढके इस जमीन को साफ किया जाएगा या फिर यह बालू से भरा खेत एैसा ही रहेगा ? इस पर सरकार की क्या राय है यह अब तक लोगों के सामने स्पष्ट नहीं है ? इसे तुरन्त सपष्ट किया जाए ?
बिहार से शहर को प्लायन:- प्लायन के कारण शहर की आबादी लगातार बढ़ रही है इस प्लायन में एक बहुत बड़ा हिस्सा बिहार से आए मजदूरों का है। इन मजदूरों में सबसे बड़ा हिस्सा छोटे किसानों या खेत मजदूरों का है। लगातार बाढ़ ने बिहार के उन इलाकों को इस तरह बर्बाद किया है कि गांव छोड़ कर चले जाने के सिवाय और कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। तीन फसल से जिन्दगी की जरूरत न पूरा कर पाने वाले किसानों को एक फसल पर सब्र करना पड़े या वह भी नहीं हो तो गांव छोड़कर षहर जाने के इलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता। मजबूरी में शहर आकर जिन्दगी चलाने वालों पर यह बार-बार इल्जाम लगाया जाता है कि शहर की आबादी इन्हीं लोगों से बढ़ रही है। जबकि यही मजदूर शहर को चलाते हैं। खाने-पीने का सामान लाने से लेकर सफाई व रख रखाव की पूरी जिम्मेदारी इन्हीं मजदूरों द्वारा होती है। प्लायन का इल्जाम या आबादी बढ़ाने का इल्जाम उन लोगों पर नहीं लगता जो उच्च शिक्षा के लिए शहर जाते हैं एंव पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं किसी रोजगार से जुड़ जाते हैं। क्या उन पर प्लायन का इल्जाम इस लिए नहीं लगता क्योंकि वह किसी अदालत के जज या वकील, थाने के पुलिस या कालेज के प्रोफेसर, या किसी बड़ी कम्पनी में बड़ी आमदनी प्राप्त करने वाले व्यक्ति। भूख एक सत्य है जो हर किसी को लगती है। कुछ लोग मानते हैं कुछ लोग नहीं मानते।

बिहार में बाढ़ के आने का कारण वह छोटे किसान बिल्कुल नहीं हैं लेकिन फिर भी उनहें परेशान होना पड़ता है। अगर सरकार को गांव से अधिक प्लायन राकना है तो गांव में रोजगार के बेहतर इंतजाम करने होंगे। बाढ़ एवं अन्य आपदाओं का सामना करने के लिए हर तरह से तैयार रहना होगा ताकि किसान एंव उनके बच्चे खुद की जिन्दगी गांव में भी सुरक्षित महसूस करें।
साथियों ऊपर के तमाम बिन्दुओं पर अगर हम ध्यान दें तो पता चलता है कि बिहार में अक्सर बाढ़ आने का कारण लापरवाही नहीं बल्कि एक सुनियोजित साजिश है जिसे बिहार की आम सीधी-सादी जनता समझ नहीं पाती और इस अफवाह का षिकार हो जाती है कि नेपाल के पानी छोड़ने के कारण वह बर्बाद हुए हैं। इस अफवाह की आड़ में सरकार में बैठे तमाम अधिकारियों को सैलाब का खतरा या तटबंध टूट कर सैलाब का आना एक बड़ी आमदनी का बड़ा साधन दिखाई देता है।