Tuesday, October 27, 2009

पिछले तीन सालो से लगातार बिहार में सैलाब आने के कारण लाखो लोगों का बसा -बसाया घर उजड़ गया, इस कदर परेशान हुए की आज लाखों लोग बेघर होकर सड़कों पर जिन्दगी जी रहे है हजारो बच्चे का स्कूल छुटा और आज भी वो स्कूल से बहार ही है सरकार की ऐसी कोई पहल न होने के कारण जिससे दोबारा जिन्दगी संवर सके, लोगों की मायूसी ने प्रवास का रूप लिया। 2008 के कोसी सैलाब से आज तक उन इलाको के लोग लगातार बड़ी संख्या में शहर की ओर आ रहे है। 2009 में सैलाब का साथ सूखे ने भी दिया, जिसके कारण लोगों में उदासी बढीं और प्रवास व पलायन और भी बढ़ा। इन पलायन करने वालों का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली आकर कुछ भी रोजगार कर अंपनी जिन्दगी गुजरने पर मजबूर है ।
आज दिल्ली जैसे शहर में पहले से लाखों मजदूर अंपने मानवाधिकारों को भूल कर सड़कों पर सो कर एक कमरे से ८-१० लोग एक साथ रहा कर, दो हजार रुपये में 14 घण्टे काम कर तीन चार दिनों तक बिना किसी आराम के टेन्ट लगाने या शादी पार्टी का काम करने जैसे क्षेत्र में काम कर रहे है। ऐसा इसलिए भी रहा है क्योंकी शहर में मजदूरों की कमी नही है। इन तमाम सूरत- ऐ -हाल के बावजूद लगातार सैलाब व सूखे की मार से परेशान होकर और भी अधिक मजदूरों का मजबूर होकर शहर आना मानवाधिकार हनन करने वालों को मौका प्रदान कर रहा है। मजदूरों की अधिक संख्या को देखकर मंदी के बहाने दिल्ली के कुछ इलाकों में 200 से 300 रुपये प्रतिमाह मजदूरी कम कर दी गई। ऐसा उस दौर में हुआ है जब सरकारी कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग की सिफारिशों का लाभ मिलना शुरू हो चुका है। यहाँ हमें लोगों का बेहतर जिन्दगी के लिए पलायन एवं बसाये घर के सैलाब से उजड़ जाने के कारण मजबूर होकर प्रवास करने में फर्क करना होगा ।
एक तरफ बाढ़ और सूखे की एवं दूसरी और शहर की तथाकथित विकास योजना । विकास भी ऐसा जिसकी सफलता का केवल शोर ही हर तरफ़ सुनाई देता है सफलता दिखाई नही देती। इस विकास का सबसे बड़ा चेहरा यह है की एक कार में एक व्यक्ति बैठकर सफर कर सके , इसके लिए सड़कें चोडी की जा रही है या फ़्लाइओवर बनाये जा रहे है। लेकिन सड़कों को कारों के लिए चौड़ा करने में सड़क के किनारे लगे लाखों रेहडी -पटरी ठेलेवालों का रोजगार भी जाता है। साथ ही साथ न केवल इस तथाकथित विकास का खर्च महगाई बनकर गरीबों की कमर तोड़ता है बल्की इसी विकास योजना के सब से चहेते दिल्ली मेट्रो रेल के पिलर भी उनकी झुग्गियों पर ही रखे जाते है और उनकों वहा से उजड़ दिया जाता है।
विकास का इस से चहरे से शहर से लेकर गांवो देहात एवं आदिवासी क्षेत्रों तक उसका असर साफ दिखाई देता है। गांवो में जंगलों की बेइंतहा कटाई कर जमीन बड़ी कम्पनीयों के हवाले करना एवं मशीनीकरण के बढ़ती उर्जा खपत के फलस्वरूप मौसम में भयावह बदलाव दिखाई दे रहा है, जिसका रिश्ता सैलाब के आने के एवं मजदूरों के प्रवास से है। मशीनीकरण ने बेइंतहा मजदूरों को बेकार कर घर बैठाया है। इस बेकारी एवं बेरोजगारी का सबसे ज्यादा असर महिला मजदूरों पर पड़ता है। चाहे उनका रोजगार बंद हुआ हो या पति का रोजगार, आख़िर परिवार चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है। साथ ही साथ इस शहरीकरण की चकाचोंध ने महिलाओं के लिए असुरक्षित वातावरण भी तैयार किया है।
माता -पिता की स्थिति खराब होने के कारण बच्चों की जिन्दगी भी परेशान हुई । इस सैलाब ने लोगों से केवल मौजूदा दौर ही नही छीना बल्कि बच्चे जिसे पारिवारिक भविष्य को भी अंपनी चपेट में लेकर सदा के लिए सब कुछ छीन लिया है। लाखों स्कूल से बाहर हैं जिनका न तो खाने का इंतजाम है और न ही सोने का । ऐसे समय में उन्हें भी अपना रास्ता तलाश करते हुई बाल मजदूरी की ओर बढ़ना पड़ रहा है। तमाम असामाजिक तत्व जो बाल मजदूरी कराते हैं उन्हें ओर मौका मिल है । जरूरत इस बात की है की सरकार यह पहल ले एवं उनके माता-पिता के रोजगार को सुरक्षित करते हुई जमीनी स्तर पर बाल मजदूरी पर रोक लगाए न की केवल कानून बना कर ख़ुद को अन्तरराष्टीय स्तर पर बाल हितों का पक्षधर घोषित करे ।
दिल्ली में मजदुर वर्ग चार पांच तरह से प्रवास करते है। शहर का एक बढ़ हिस्सा झुग्गी बस्ती में रहता है। एवं दूसरा बढ़ हिस्सा पुनर्वास कालोनियों में । पहले ये आबादी भी झुग्गी बस्ती में थी जिसे विकास के नाम पर उजाडा गया । शहर में एक बड़ा हिस्सा बेघरों का है जो अपने रोजगार के साधन के आसपास रहता है। पिछले कुछ वर्षों में झुग्गियों के टूटने एवं वैक्लपिक प्लाट न मिल ने कारण इनकी संख्या में बहुत अधिक बढोतरी हुई है। मजदुर वर्ग का एक बढ़ हिस्सा कच्ची कालोनियों में रहता है। सरकार की नजर में ऐसी अवैध कालोनियों हैं जो किसानों से जमीन खरीद कर बनाई गई अहि। इसे वैध करने का सरकारी फार्मूला यह है की यह कालोनियों का चुनाव से पहले वैध होने लगती है एवं सरकार के गटन के बाद अवैध हो जाती हैं।
इन सभी कच्ची कोलोनी, एवं झुग्गी बस्तीयों में बुनियादी ज़रूरत जैसे पानी, बिजली, शिक्षा, सफाई और राशन की स्थिति ऐसी है मानो इन इलाकों में रहने वालों का न तो कोई मानवाधिकार है और न ही सरकार की इनके प्रति कोई ज़िम्मेदारी। कहीं लोग ज़मीन से निकाल कर कच्चा पानी पीने पर मज़बूर है तो कहीं 2 से 3 दिनों तक टैंकर का इंतज़ार करने को बेबस। पानी भरने का इंतज़ाम इतना गैर जिम्मेदाराना है कि टैंकर बस्ती में लाकर खडा कर देना एवं पाइप खोल देना ही सिर्फ़ सफाई कर्मचारियों की ज़िम्मेदारी है? उसमे से कितना पानी लोगों को मिल रहा है एवं कितना बर्बाद हो रहा है यह जिम्मेदारी किसी की नही होती है।
अगर सरकारी स्कूलों की हालत देखे तो पता चलता है कि शिक्षा सफर जैसी कोई चीज है, जो कोई गाड़ी में चढेगा आगे बढेगा ही। स्कूल में बच्चों का आना और आकर शिक्षक के इंतज़ार में बैठे रहना इन बच्चों का काम है। शिक्षक की कोई ज़िम्मेदारी नही होती की वे पढ़े भी। बाकी स्कूल के रखा रखाव की ज़िम्मेदारी किसकी है यह तो समझ में ही नही आता। इन सभी बस्तीयों में बुनियादी ज़रूरत की सभी चीजों का हाल लगभग एक जैसा ही है, और इसे ठीक कराने की इच्छा सरकार के किसी भी विभाग में दिखाई नही देती।
बिहार में आने वाली लगातार भयावह बाढ़ के कारण बेघर हुए लोगों के प्रश्न को उठाने एवं उन्हें अपने स्थान पर पुनर्वास कराने, दिल्ली प्रवास कर चुके मजदूरों की मजदूरी एवं ज़िन्दगी के बुनियादी हकों के सवाल को आम लोगों एवं सरकार के सामने रखने व उनका समाधान तलाशने के लिए एक 8 दिवसीय साइकिल यात्रा का आयोजन दिल्ली में किया जा रहा है । यहाँ 8 दिनों की साइकल यात्रा 17 नवम्बर 2009 को भगत सिह पार्क से शुरू होकर दिल्ली के मुख्य स्थानों से गुजराती हुई झुग्गी बस्तीयों, पुनर्वास कोलोनियों, बेघरों के स्थानों से गुजरकर विभिन्न लेबर चौकों से होती हुई संसद भवन तक जायेगी, जहाँ इसका समापन होगा।
इस साइकिल यात्रा में आप अपने सहूलियत के मुताबिक हिस्सा लें

आयोजन समीति

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